योग : प्रकृति से चेतन की ओर

योग : प्रकृति से चेतन की ओरयोग, पूरे विश्व में व्यापक रूप से लोकप्रिय है। आज योग से संपूर्ण विश्व एक सूत्र में बंध‌ता दिख रहा है। योग जीवन जीने की अति आवश्यक माध्यम था, है और रहेगा । योग की व्याख्या अनेकों प्रकार से अपने अपने बौद्धिक स्तर से किया गया है। आज संपूर्ण विश्व शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्‌थ‌य रहने के लिए विशेष प्रयास करता दिख रहा है। शरीर स्वस्थ होगा तभी मन भी स्वस्थ हो सकेगा एवं कर्म संपादन की क्षमता बढ़ेगी । आज प्रतियोगिता एवं संघर्ष के इस आधुनिक युग में योग , मूल रूप से प्रथम अनिवार्य आवश्यकता का रूप धारण कर लिया है ।

योग वस्तुतः एक व्यापक शब्द है, इसका अर्थ , भाव एवं अंतर्ज्ञान असीम, अथाह एवं अनंत है । इसके प्राकृतिक रूप एवं भाव को नियोजित रूप से अपनाते हुए इसके चेतन स्वरूप की गहराई को ज्ञान रूपेन धारण करना मानव मात्र का लक्ष्य है । वास्तव में प्रत्येक व्यक्ति का लक्ष्य तीन भागों में बांटा है : १. स्वस्थ शरीर : जिससे मानव अच्छी मानसिक स्थिति, अच्छी बुद्धि ,ज्ञान इत्यादि का समन्वय कर अच्छी सफलताओं को प्राप्त कर सकें एवं जीवन को संतुलित रूप से आनंदित होकर जीना सीखें । जीवन को सफल बनाने के लिए इन सभी तत्व की शुद्धता , स्वच्छता एवं पवित्रता का अधिक से अधिक विकास हो सके जिससे मानव में अच्छे व्यक्तित्व का निर्माण हो सकेगा एवं एक अच्छे कुशल परिवार का रूप लेते हुए एक अच्छे समाज एवं अच्छे राष्ट्र का निर्माण संभव हो सकेगा । २. पुरुषार्थ क्षमता में वृद्धि: यदि शारीरिक रूप से स्वास्थ्य मानसिकता का विकास होगा तो पुरुषार्थ क्षमता में भी वृद्धि होगा एवं कर्म करने की क्षमता बढ़ेगी जिससे अच्छे समाज के निर्माण में सहायक होगा । 3. आत्मा का परमात्मा से संयोग / मिलन हेतु योग के लिए इस शरीर को तैयार करना: जितना स्वस्थ शरीर होगा, मन बुद्धि एवं कर्म इंद्रियां उतना ही साधन अभ्यास के लिए दृढ़ संकल्प कर सकेगा और अंतर आत्मा का योग परमात्मा से कराने में भी यही शरीर ही तो उपयोगी हो सकेगा । अतः यह कहावत है — : योग भगावे रोग । रहना है निरोग तो करो रोज योग, आदि ।

आसन प्राणायाम से हमारे शरीर की क्षमता बढ़ती है , विशेष ऊर्जा मिलती है , मांसपेशियां मजबूत होती है , मेरुदंड जोकि शरीर का आधार है एवं साधन अभ्यास के लिए मुख्य आधार भी है।इससे रक्त संचार एवं स्वांस – प्रशवांस की क्रिया उचित कार्य करती है जिससे शारीरिक पाचन शक्ति सही रहता है ।अर्थात हमने प्रत्यक्ष देखा , और अनुभव भी करेंगे की चेतन योग के लिए भी प्राकृतिक योग द्वारा एक मजबूत नींव को प्रदान करके ही शरीर को उचित मार्ग दर्शन प्राप्त हो सकता है।व्याकरण शास्त्र के अनुसार : योग का शाब्दिक अर्थ है: युजीर योगे , युज़ संयमने , तथा युज समाधौ , धातु में धन प्रत्यय लगने से बना है योग। इसका शाब्दिक अर्थ है जुड़ना, मेल होना, संबंध होना। अर्थात युज़ समाधौ– यानी समाधि लगाना । यूज़ संजमने — यानी संयम करना एवं युजिर योगे धातु — यानी योग करना।महर्षि पतंजलि ने अपने योग शास्त्र में कहा है: योगश्चित्त वृत्ति निरोध: , अर्थात चित्त की वृत्तियों के विरोध को योग कहते हैं । हम भी कर्म करते हैं इसका प्रभाव चित्र पर पड़ता है। ऐसे अनेक जन्मों के प्राकृतिक प्रभाव – संस्कार चित्त के अंदर विद्वमान होते हैं एवं यह आवरण बढ़ता ही तो जाता है । चित्र की वृर्तियां ही चित्र के विषय हैं। चित्त की कुल 5 अवस्थाएं हैं:–

१. क्षिप्त अवस्था : यह अवस्था प्राय: राग द्वेष वाले जीवो में होता है ऐसे जीव रजोगुण प्रधान अत्यंत चंचल होते हैं। २. मूढ अवस्था : यह अवस्था प्राय: तमोगुण प्रधान , काम , क्रोध , लोभ , मोह अधिक होने के कारण जीव की प्रवृत्ति — अज्ञान ,अधर्म और द्वेष युक्त हो जाता है। ३. विक्षिप्त अवस्था : इसके अंतर्गत सतोगुण प्रधान ज्ञान वैराग्य धर्म ईश्वर शादी होने जीव श्रेष्ठ प्रवृत्ति के होते हैं उपरोक्त तीनों अवस्थाएं प्राकृतिक गमन अवस्थाएं हैं अतः यह आध्यात्मिक योग चेतन योग के अंतर्गत नहीं आता है। ४. एकाग्र अवस्था : इस अवस्था में विधियां बाहरी विषयों से पृथक हो किसी एक विषय पर केंद्रित हो जाता है इसे संप्रज्ञात समाधि भी कहते हैं इस अवस्था में एकाग्र चित्त अवस्था से ही चेतन योग की क्रिया प्रारंभ हो जाती है। ५. निरोध अवस्था ; इस अवस्था के विषय में महर्षि पतंजलि ने उल्लेख किया है :;योगश्चित्त वृत्ति निरोध: , इति योगा ! अर्थात जब चित्त की वृत्तियों एकाग्र होने लगती है एवं इस अवस्था के अभ्यास से शांत हो जाती है तो इसे और संप्रज्ञात समाधि या नीर वीज समाधि भी कहते हैं । इस अवस्था के विशय में महर्षि ने बताया है कि : तदा द्ष्ट स्वरूपेवस्थानम , अर्थात तब आत्मा अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है और परमात्मा से योग प्रारंभ होने की स्थिति बनती है और यह सद्गुरुकृपा अधीन होकर ही संभव है।

महर्षि पतंजलि के अपने योग दर्शन में योग के आठ अंग बताए हैं: १.; यम : इसके अंतर्गत अहिंसा ,सत्य बोलना, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह – पूर्ण कर्म आते हैं एवं इसका पालन कर यम नियम अंतर्गत अपने को पूर्ण करते हैं। २. नियम : इसके अंतर्गत साधक अपने शरीर, इंद्रियां ,अंतःकरण आदि की शुद्धि , संतोष , तप , स्वाध्याय और ईश्वर प्राणी धान समाविष्ट है । ३. आसन : इसके अंतर्गत मन एवं चित्र को एकाग्र चित्र करते हुए अन्तरगमन करते हुए प्राकृतिक यात्रा से चेतन यात्रा तक के गमन का ज्ञान प्राप्त किया जाता है । ४. प्राणायाम : इससे साधन अभ्यास के लिए स्वास्ं की शक्ति दृढ़ एवं नियंत्रित होता है, आत्मबल बढ़ता है एवं कर्म करने की चेष्टा दृढ़ होता है । ५. प्रत्याहार : ज्ञानेंद्रियों को उनके विषयों से पृथक करना ही प्रत्याहार है । यह प्राकृतिक कर्म से योग द्वारा प्रकृति मंडल में स्थित रहकर मन, बुद्धि , चित्त और अहंकार को अपने-अपने भूमि में ले ली जाकर उनके विषयों से पृथक करना सिखाता है । ६. धारणा : मूल केंद्र पर एकाग्र चित्त होकर आत्मा की ओर ज्ञानेंद्रियों का एकाग्र होना ही धारणा है । जैसे-जैसे धारणा , अभ्यास रत होकर बढ़ता जाता है वैसे वैसे ध्यान की ओर अग्रसर होते हैं । ७. ध्यान : जिस बिंदु पर चित्र को एकाग्र किया गया है उसी बिंदु पर चित्त को लगातार रखना ही ध्यान मुद्रा है । ८. समाधि : जिस बिंदु पर ध्यान को केंद्रित किया गया है स्वयं को उसी में पूर्णत: लीन कर लेना समाधि अवस्था है। इस अवस्था में चित्त की वृत्तियां बंद हो जाती है। अतः योग एक शाश्वत विज्ञान है जिसका धरातल विशुद्ध – वैदिक है जो हमें प्रकृति से चेतन की ओर गमन कर चेतन आत्मा को चेतन परमात्मा की भक्ति का रहस्य सिखाता है । यह तत्वज्ञान ऋषि महर्षियों द्वारा प्रमाणित परमात्मा – प्राप्ति का चेतन विज्ञान है , शाश्वत सत्य पथ है , जिसका वर्णन वेद आदि सद ग्रंथों में भरा पड़ा है।मूलता उपनिषद ही योग विद्या के ज्ञान का मंत्र कोष है। कठोपनिषद के अनुसार समस्त इंद्रियां जब अपने कार्य व्यवहार को छोड़कर अपनी भूमि में स्थित हो जाती है , तथा जिस अवस्था में मन कुछ भी मनन नहीं करता, एवं बुद्धि भी स्थिर हो जाती है या यह सभी अपने मूल कारणों में लय हो जाते हैं , इसी उच्च कोटि की अवस्था का नाम योग है।कठोपनिषद के अनुसार : तां योगमिति मन्वंते, स्थरा मिंद्रव धारणम । अप़मत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवात्ययौ ।।अर्थात : समस्त इंद्रियां जब अपने कार्य , व्यापार को छोड़कर स्थिर हो जाति हैं , तथा जिस अवस्था में मन कुछ भी मनन नही करता , बुद्धि भी स्थिर हो जाति हैं , या ये सभी अपने मूल कारणों में लय हो जाते हैं , इसी उच्च कोटि की अवस्था का नाम योग है । योग की इस पराकाष्ठा की स्थिति को दर्शाते हुए श्वेताश्वतरोपनिषद की वाणी कहती है : ते ध्यान योगा गुणता अपश्यम । देवात्मशक्तिं सर्वगुणै निरगुढाम ।। , अर्थात ध्यान योग की प्रगाढ़ता में स्थिर होकर अपने दिव्य गुणों से गुणान्वित , स्वप्रकाश स्वरूप , सर्वव्यापक , जिसकी नियम व्यवस्था में संपूर्ण सृष्टि व्यवस्थित है , एवं काल से लेकर आत्मा व अक्षर पर्यंत , सर्व व्याप्त – सर्व व्यापक है ऐसी महिमा से पूर्ण परमात्मदेव की शक्ति का साक्षात्कार अनुभव होता है——- यही तो योग का यथार्थ स्वरूप है ! इस प्रकार हमने देखा, – योग शब्द एक वैदिक, आध्यात्मिक शब्द है जिसका ज्ञान सद्गुरु अधीन होकर ही ऋषियों – महर्षियो के द्वारा प्राप्त होता रहा है एवं इसी चेतन ज्ञान का आधार प्राप्त करना मानव मात्र का लक्ष्य है ।

आज जो भी योग – मार्ग की पद्धतियां प्रचलित है , मूलतः उनका आधार प्राकृतिक है , बौद्धिक हैं । अतः जिस योग मार्ग का आधार प्राकृतिक एवं भौतिक होगा , उसके द्वारा उस चेतन परमात्मा तत्व की प्राप्ति कदापि संभव नहीं है। परमात्मा एक विश्वव्यापी विराट विभु चेतन सत्ता है , अतः उसकी प्राप्ति का मार्ग भी चेतन ही है। चेतन साधन योग के द्वारा ही चेतन परमात्मा की प्राप्ति तथा संसार के आवागमन दुख से निवृत्ति संभव है अतः यथार्थ योग तो वही है जिस योग के द्वारा आत्मा का संबंध परमात्मा से होता है।महर्षि याज्ञवलक्य ऋषि ने इस योग को परिभाषित करते हुए लिखा है —- संयोगो योग इत्युक्तेऻ , जीवात्मा परमात्मनो: । अर्थात परमात्मा और जीवात्मा के संयोग का नाम ही योग है । अतः योग एक चेतन आध्यात्मिक क्रिया है और इसका क्रियात्मक ज्ञान ही ब्रह्मविधा विहंगम योग है । यही ऋषियों एवं महषिंयों का ज्ञान है । यह ज्ञान वर्तमान में कहीं है तो वह ब्रह्मविद्या विहंगम योग के प्रनेता हिमालय योगी अभ्यास सिद्ध सद्गुरु महर्षि सदाफल देव महाराज के द्वारा रचित विश्व के अद्वितीय आध्यात्मिक सद ग्रंथ स्वर्वेद में अनुभव गम्य अभिव्यक्ति प्रदान की है । आदित्य विहंगम योगी महर्षि सद्गुरु सदाफल देव जी भगवान ने १७ वषौं की कठीन तपस्या के उपरान्त , विश्व के लिए उपलब्ध कराया । अपने सम्पूर्ण अनुभव से प्राप्त अनुभूत ज्ञान को विश्व के अद्वितीय अध्यात्मिक सद्गग्रथ स्वरवेद में अनुभव गम्य अभिव्यक्ति प्रदान की है । आदित्य विहंगम योगी , महर्षि सदगुरू सदाफल देव जी भगवान ने योग शब्द के यथार्थ को स्पष्ट करते हुए अपने महान आध्यात्मिक सद ग्रंथ स्वर्वेद में कहा है :—–॔ योग योग सब कोई कहे ,योग ना जाना कोई। अरध धार उड़ध चले , योग कहावे सोए।। योग कहत हैं जोर को , योग कहत हैं संधि । योग रहस्य उपाय में , जीव ब्रह्म की संधि ।। अर्थात आज विश्व सिर्फ आसन प्राणायाम एवं हठ योग की क्रियाओं को योग समझते हैं। सर्कस के बाजीगर की तरह कुछ आसनों को दिखाना प्राणायाम के द्वारा कुंभक लगाकर प्राण को ब्रह्मांड में चढ़ाना , आंख, कान – नाक आदि द्वारों को बंद कर अनहदों को सुनना या आंखों को बंद कर , अंदर में ज्योति को देखना तथा चक्रों का भेदन करते हुए कुंडलिनी शक्ति को जगाना इत्यादि यही सब क्रियाएं योग के नाम से लोगों की देखा जाता है लोगों की मानस पटल पर देखा जाता है ।वास्तविकता तो यह है कि यह सभी क्रियाएं प्राकृतिक योग हैं। यह चेतन योग नहीं है। परमात्मा एक नित्य अनादि चेतन और एक सर्वव्यापी पूर्ण सत्ता है एवं आत्मा भी चेतन है परंतु अरु चेतना है, एक देशीय चेतना है । और जब आत्मा के धरातल से परमात्मा की भक्ति होगी तभी आत्मा अपने परमात्मा का साक्षात्कार करेगा यही क्रिया चेतन योग है। क्योंकि योग दो सजातीय पदार्थ में ही संभव है विजातीय मैं नहीं अतः जड़ और चेतन का योग कदापि संभव नहीं है ।अगर योग पूजा-पाठ साधना का आधार प्राकृतिक होगा तो इससे ब्रह्म प्राप्ति की बातें करना सर्वथा भ्रामक है ।इस ज्ञान को समझना आज आवश्यक है। मानव अपनी जीवन को जिए जाता है और उसे भारतीय संस्कृति की यथार्थ अध्यात्मिक ज्ञान का बोध भी नहीं हो पाता है। आज इस मूल अध्यात्मिक ज्ञान को समझना होगा । मानव जीवन एक युद्ध क्षेत्र है ।मानव दो रूप को लेकर गमन करता है एक है शरीर एवं दूसरा है शरीरी अर्थात जीवात्मा। यह शरीर पांच कर्मेंद्रियों पांच इंद्रियां एवं चार अंतःकरण एवं उनके अलग-अलग विषयों से संयुक्त होकर कर्म संपादित करता है। शरीर का गुण अथवा धर्म है नाश होना तो उसे किसी पूजा की आवश्यकता क्यों होगी । यह शरीर तो कर्म करने अर्थात ज्ञानेंद्रियों एवं कर्मेंद्रियों द्वारा संयुक्त रूप से कर्म संपादन के लिए एक माध्यम है। इसमें भी उतार-चढ़ाव , अनुकूल – प्रतिकूल परिस्थितियां आती है। प्राय: शिक्षा एवं नौकरी के लिए 2५- 30 वर्ष संघर्ष एवं मेहनत करते हैं , फिर सुख शांति के लिए भौतिक साधनों से अपने आप को जोड़ते रहते हैं। इस प्रकार 50 वर्ष तक उम्र तो यूं ही बीत जाता है फिर अध्यात्म को समझने जानने का वक्त कहां मिलता है । परंतु मन की चंचलता , आंतरिक असंतुष्टि , विषयों के प्रति आसक्ति ,अविवेकी कर्म ,निर्णय, अलग-अलग विचारों के कारण, जो भी सुख और आनंद प्राप्त होता है, वह क्षणिक लगता है एवं महसूस करता है कि यह जो सुख एवं आनंद प्राप्त हो रहा है वह क्षणिक है और सींक परे एक बूंद के समान है ।इस प्रकार प्रकृति के कालचक्र में फंसकर मानव के लिए आध्यात्मिक ज्ञान को प्राप्त कर, इस बंधन से बाहर निकलना असंभव सा हो जाता है। ऐसे में उसे एक पथ प्रदर्शक सद्गुरु की नितांत आवश्यकता है जिसके दिशा निर्देशन में रहते हुए घर परिवार एवं समाज में रहकर मानव जीवन के मुख्य लक्ष्य धर्म अर्थ काम एवं मोक्ष को प्राप्त कर सके। वर्तमान में इस ज्ञान की खोज करने के क्रम में हम यहां तक पहुंचते हैं यह ज्ञान चेतन ज्ञान हैं और यह गुरुमुखी ज्ञान भी है जो प्रकृति के आधार को छुड़ाकर परमानंद स्वरूप परमात्मा के साथ योग करा दे ,वही है ब्रह्मविद्या विहंगम योग। जिसमें साधक, साधन करते-करते योगी स्वरूप हो जाता है ,इस प्रकार विहंगम योग में योगी मन को उसके उद्गम , अक्षर – ब्रह्म तक ले जाते हैं , जहां या स्थाई रूप से शांत हो विलय होने लगता है। जैसे नदी समुद्र में गिर कर अपना अस्तित्व खो देती है इसी प्रकार एक बार जब आत्मा मन के बंधन से मुक्त हो जाती हैं तो इसे अपने वास्तविक रूप का ज्ञान हो जाता है, और तब शरीर से इसकी एकरूपता का भाव समाप्त हो जाता है।इस स्थिति में आत्मा स्वामी की तरह कार्य करती है और अपने मन एवं शरीर पर नियंत्रण हो जाता है, जिससे इच्छा अनुसार मन और शरीर को क्रियाशील करती है। इस ब्रह्मविद्या विहंगम योग के प्रणेता हिमालय योगी अभ्यास सिद्ध सद्गुरु महर्षि सद्गुरु सदाफल देव जी महाराज हैं जिन्होंने 17 वर्षों की कठिन तपस्या से प्राप्त अनुभूत ज्ञान को जनसाधारण के लिए स्वर्वेद के रूप में सुलभ किया है। स्वर्वेद विश्व के आदित्य आध्यात्मिक सद ग्रंथ है जिसमें सदगुरुदेव ने प्रकृति से चेतन आध्यात्मिक स्वरूप के हर स्वरूप को पूर्ण अभिव्यक्ति प्रदान की है स्वर्वेद में अध्यात्म की असीम एवं अनंत प्रवाह है जिसमें ब्रह्मविद्या विहंगम योग सद्गुरु ने परिभाषित एवं कहा है :— सब तत्वों का ज्ञान है, परम पुरुष विज्ञान ।सहज योग अभ्यास है, डोर विहंगम जान ।। अर्थात विहंगम योग ही मात्र साधना है जो चेतन को चेतन से योग कराकर , परमपिता के आनंद को प्राप्त करा सकता है । स्वर्वेद की वाणी में विहंगम योग का विशुद्ध ज्ञान जगह-जगह स्पष्ट रूप से व्यक्त किया गया है:– तन आसन हठयोगी माने , मन आसन कोई बिरला जाने । आतम आसन अद्भुत केला है रहस्य अंतर गम मेला।। तन थीर कर मन – पवन थीर , सुरती निरति करो थीर । नि:तत्त्व – निशब्द का, अनुभव सोमति थीर ।। योग योग सब कोई ,कहे योग ना जाना कोई। अध्रधार ऊरध चले , योग कहावे सोय ।। योग कहत हैं जोर को, योग कहते हैं संधि। योग रहस्य उपाय में , जीव ब्रह्म की संधि।। परम पुरुष अरु आत्मा, संधि निरंतर योग ।जड़ माया व्यापे नहीं ,कभी ना होए वियोग।। योगी करे गगन में बसा, योग कला पूजै सब आसा।। अर्थात योगी परमात्मा से युक्त होकर अपने महान संकल्प के सारे कार्यों का संपादन करता है। यही रूप राजा जनक ने पाया, जिससे उनको विदेही कहा गया है। सुरती चेतन शब्द अनुभव योग दृढ़ पल-पल चलें उठक बैठक सोवत जागत चलत फिरत ना डालें दृश्य और अभ्यास संताजी अगम संकरे अपूर्ण जाल विहंगम मार्ग है सफल है सदाफल दुख भरे अतः ब्रह्मविद्या विहंगम योग एक पूर्ण यात्रा है भौतिक विज्ञान योग से चेतन विज्ञान योग का जिसमें आत्मा और परमात्मा का पूर्ण ज्ञान क्रियात्मक साधन के रूप में निहित है आत्मा और परमात्मा दोनों चेतन हैं एवं आत्मा के अंदर की अंतर्निहित चेतन शक्ति अर्थात आत्मिक ऊर्जा अथवा सुरती का योग परमात्मा से होने लगता है जिससे आत्मा स्वयं को अनुभव करते हुए सुरती को सूक्ष्म स्वरूप नियति में परिवर्तित करके तद अंतर परमात्मा से योग करता है यही चेतन योग चेतन विज्ञान ब्रह्मविद्या विहंगम योग है अब सोचना होगा की आत्मा का अनुभव कौन करता है सद्गुरु ने कहा है आतम जानने के लिए अन्य करण नहीं कार्स आप आपको जानता सुमिरन पुरुष सकाल 100 कार्स स्वर्वेद की वाणी कहती है की आत्मा को अनुभव करने वाला स्वयं आत्मा ही है इसके लिए आत्मा को करण चाहिए दो प्रकार के करण है जड़ और चेतन। जड़ कर्म करण कोरोना आत्मा का अपना कर्म नहीं है परंतु चेतन करण अपना निज करण है शरीर में स्थित आत्मा अपने प्राकृतिक इंद्रिया धिक जर कर्मों से जर कर लो से स्वयं को अनुभव नहीं कर सकता और आत्मा अपने स्वयं के निज चेतन कर्म या नहीं सुरती का उपयोग योगाभ्यास में परमात्मा से योग करने के लिए कर पाता है आत्मा की चेतना अर्थात सुरती का संबंध मन से होता है पुनः मन का संबंध ज्ञानेंद्रियों से तथा कर्मेंद्रियों एवं उनके विषयों से होता है जिससे हमें सांसारिक विषयों का ज्ञान होता है और इसी से हमारा दैनिक जीवन चलता है इस प्रकार हमारे दैनिक जीवन में आत्मिक ऊर्जा का संचार और बिखराव संसार के विषयों में मन के द्वारा निरंतर होते रहता है इसी बिक्री हुई आत्मिक ऊर्जा बिक्री बिक्री हुई अपनी पूजा आत्मिक ऊर्जा अर्थात आत्मा की सुरती को बहिर्मुखी गमन को एकत्रीकरण और संचयन करने के लिए मन को शरीर के एक विशेष केंद्र बिंदु पर अभ्यास तो रोकने से मान अंतर मुख उन्हें लगता है एवं बाय बाहर बाय बिखरती हुई शक्ति अंतर्मुखी होने लगता है एवं शक्ति संचित होने लगती है क्रमशः आत्मा की चेतन शक्ति भी संचित होकर दृश्य एवं शक्ति युक्त होने लगती है इस प्रकार समय समय मन के मन के साथ प्राण और आत्म चेतना भी रुकने लगती है यही साधन विहंगम योग की प्रथम भूमि है इस भूमि का साधन सदगुरुदेव के सानिध्य में प्राप्त होता है इस क्रिया को बार-बार संयम और नियम के साथ निरंतर करने से मन रुकने लगता है एवं तद अंतर अभ्यास करने से अभीष्ट तक एवं गमन से गंतव्य तक पहुंच जाता है अतः योग का वास्तविक लक्ष्य भी एक ही है वह है और वह है परमानंद परम पुरुष की प्राप्ति सृष्टि में प्रत्येक वस्तु का अपना-अपना गुण स्वभाव होता है एवं उसके गुण अनुरूप ही उनका गुण एवं व्यवहार भी होता है मन की धारा औरत होने के कारण उसका स्वभाविक गुण और अधिकारी होता है अर्थ गामी होता है जिसके कारण मन प्राकृतिक विषयों की तरफ बहिर्मुखी रहता है परंतु आत्मा की धारा उर्द होने के कारण इसका स्वभाविक गुण उर्द गामी होता है आत्मा का स्वभाव उर्द गामी होने के कारण आत्म चेतना अंतर्मुखी होने के लिए सदा मार्ग की तलाश में रहती है और योगाभ्यास के माध्यम से ही यह संभव हो सकता है अतः योगाभ्यास के माध्यम से ही जैसे-जैसे अनुकूल परिस्थिति मिलती है वैसे वैसे आत्मा उस दिशा में प्रेरित होकर उन्मुख होने लगती है यही हमें समझना होगा कि आत्मा स्वभाव से और स्वामी होते हुए भी मन की संगति पाकर मन के अधीन रहती है आत्मा और मन के इस संबंध के कारण इंद्रियों के विषय क्रियाशील होने लगती है एवं मन विषयों को निरंतर ग्रहण करता है।परम आराध्य प्रथम आचार्य श्री धर्म चंद्र देव जी महाराज ने अपने एक आध्यात्मिक लेख में लिखा है की आत्मा की शक्ति को जगत में प्रकट करने वाला मन है जिसके कारण आत्मा का व्यवहार भी मन की तरह ही ऑरिगामी हो जाता है और इस प्रकार मनुष्य का दैनिक जीवन आत्मा और मन के संयुक्त व्यवहार का प्रतिबिंब बन कर रह जाता है इन सारी परिस्थितियों के बाद भी अभ्यास से धीरे-धीरे सतगुरु दया से योगाभ्यास की अनुकूल स्थिति के द्वारा जैसे ही माना अंतर मुख होल होता है वैसे ही आत्मा की चेतन शक्ति सुरती भी अंतर मुख होने लगती है बहिर्मुखी से अंतर मुख होने के लिए यही योगिक प्रयास है जो सद्गुरु कृपा से प्राप्त होती है और यही योगी योग की वैज्ञानिकता प्रमाणित करता है अतः जब तक योगिक प्रयास नहीं होगा तब तक अंतर्मुखी होने की स्थिति को प्राप्त करना असंभव है इसी बहिर्मुखी से अंतर्मुखी की प्रक्रिया को आत्मा के अंदर मान का स्थापित होना कहते हैं इसी को योगीराज भगवान श्री कृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता में कहा है आत्म संस्थान मना कृत्वा अर्थात हे अर्जुन देश संगत सहित मनसे असंग होने पर आत्मा की विशुद्ध चेतन शक्ति से जो साधन होता है वही प्रभु प्राप्ति का मार्ग है।इस प्रकार हमने देखा कि वास्तविक पूजा योग का अर्थ एवं क्रियात्मक साधन का योग कैसे संभव हो सकेगा एवं मानव मात्र जीवन मात्र के लिए अन्य कोई मार्ग हो ही नहीं सकता परम आराध्य स्वामी जी ने इस रहस्य को अपने क्रियात्मक साधन के स्वरूप में आम लोगों तक पहुंचाया है जिससे जनमानस इस प्रकृति से अध्यात्म की ओर गमन के इस योग रहस्य को समझते हुए अपने जीवन के वास्तविक लक्ष्य को समझें एवं उसका ज्ञान रूपी आनंद प्राप्त कर सकें एवं योग की सार्थकता को समझते हुए परमानंद की प्राप्ति कर सकें सकें एवं आत्मा परमात्मा की एवं योग युक्ति को समझ सकें। सतगुरु उत्तराधिकारी संत प्रवर श्री विज्ञान देव जी महाराज ने उद्घोष किया है की ध्यान की पूर्णता का नाम है विहंगम योग ।ध्यान की पराकाष्ठा का नाम है विहंगम योग । यह मन के नियंत्रण का विज्ञान है। मन को भूमि मे लय करने का विज्ञान है । आत्मा और परमात्मा को जोड़ने का महाविज्ञान है विहंगम योग । जीवन जीने की कला है और ना सिर्फ जीवन जीने की कला , बल्कि शरीर छोड़ने की भी कला है । मृत्यु की कला है अर्थात यह मृत्यु का महाविज्ञान है । यह सिद्धांत और साधना का समन्वय है । यह स्वर्वेद का प्रकाश व सद्गुरु का अनुभव है । यह मुक्ति का विज्ञान तथा दशम द्वार को खोलने की विद्या है । इंद्रियों से जो पड़े पदार्थ हैं उनका अनुभव कराने की विद्या है । विहंगम योग संसार में रहते हुए चेतन पदार्थों का अनुभव करने की विद्या है। विहंगम योग , प्रकृति पार होने का चेतन विज्ञान है। दुखों के बीच सुख पूर्वक जीवन जीने की कला का नाम है विहंगम योग।

(लेखक- एस के शर्मा, प्रेसीडेंट रेडिको खेतान लिमिटिड)

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